वाराणसी प्रेस क्लब -परिचय
काशी पत्रकार संघ से संचालित वाराणसी प्रेस क्लब विविध सामाजिक गतिविधियों के अलावा मीडियाकर्मियों की वार्षिक खेल स्पर्धाओं का आयोजन करता है। वर्ष 1987 से 1989 तक क्लब के प्रथम अध्यक्ष का दायित्व काशी पत्रकार संघ के तत्कालीन अध्यक्ष श्री मनोहर खाडिलकर ने संभाला। क्लब के मंत्री श्री जगत शर्मा थे। वस्तुतः वाराणसी प्रेस क्लब हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल के आर्थिक सहयोग से अस्तित्व में आया। चूंकि देश के ज्यादातर शहरों में प्रेस क्लब के नाम से ही पत्रकार संगठन अस्तित्व में हैं, इसलिए चौधरी देवीलाल ने जो सहयोग राशि चेक के माध्यम से काशी पत्रकार संघ को भेजी थी, वह वाराणसी प्रेस क्लब के नाम से थी। बस, यहीं से वाराणसी प्रेस क्लब अस्तित्व में आया और आज सक्रियता से सामाजिक आयोजनों के साथ मीडिया खेल स्पर्धाओं का कुशलता से संचालन कर रहा है।
हमारे आदर्श
संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर
पराड़कर जी के पिताश्री विष्णु शास्त्री पराड़कर महाराष्ट्र के कन्हाडे परिवार के थे, जो शिक्षा पूरी करने के बाद काशी आ गये थे। 1906 में 'बंगवासी '(हिन्दी) से शुरू हुयी अपनी हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा के दौरान आपने इस विधा को नया स्वरूप, नयी दिशा और नवीन गति प्रदान की। आपकी सम्पादन कला ने हिन्दी पत्रकारिता का नया मानदण्ड स्थापित किया और हिन्दी साहित्य को सर्वश्री, श्री, राष्ट्रपति, मुद्रास्फीति, लोकतंत्र, नौकरशाही, स्वराज्य, सुराज, वातावरण, वायुमण्डल, कार्रवाई, अन्तर्राष्ट्रीय, अन्तरिम जैसे लगभग 200 नवीन शब्द दिये। आप आजीवन भारत-भारती और भारतीयता के अनन्य उपासक रहे। पत्रकारिता के साथ-साथ अरविन्द घोष के दल में शामिल होकर रासबिहारी बोस सरीखे क्रांतिकारियों की मदद करते रहे। आपने काशी में भी क्रांतिकारी दल की स्थापना की और ‘रणभेरी ’ के प्रकाशन में भी सक्रिय भूमिका निभायी। आपको 1925 में हुए प्रथम संपादक सम्मेलन का सभापति बनाया गया और 1953 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा 1501/- का महात्मा गांधी पुरस्कार दिया गया था।
महात्माओं, संतों, विचारकों तथा साहित्य के प्रवर्तकों को जन्म देने वाली ऐतिहासिक नगरी काशी में जन्मे पराड़कर जी का वास्तविक नाम सदाशिव था किन्तु स्नेह से इनके पिता पंडित विष्णु शास्त्री इन्हें ‘बाबू ’ कह कर पुकारते थे। यही बाबू शब्द 'बाबू ' राव विष्णु पराड़कर हो गया। फिर भी अपने सुदीर्घ पत्रकारिता के जीवन में पंडित जी ने सदाशिव नाम से बहुत लेख लिखे। इनकी शिक्षा-दीक्षा सनातनी परिवार के बालकों जैसे हुई। पराड़कर जी की टिप्पणियां बड़े-बड़े अंग्रेजी अखबारों की टिप्पणियों को मात कर देती थीं और उनका लोहा मानना पड़ता था। पराड़कर जी ने हिंदी पत्रकारिता को नया मानदण्ड दिया और उसका स्तर उन्नत किया। मिस्टर के लिए ‘श्री’ के लेखन की परम्परा की शुरुआत पराड़कर जी ने ही की। 1928 में आपने हिंदी साहित्य सम्मेलन के शिमला अधिवेशन की अध्यक्षता कर पत्रकारिता का मान बढ़ाया। पराड़कर जी को विधाता ने पत्रकारिता के लिए ही बनाया था, इसीलिए उन्होंने तार विभाग की नौकरी छोड़ कर कलकत्ता, वर्तमान का कोलकाता से प्रकाशित ‘बंगवासी ’ में काम करने को प्राथमिकता दी। आपने अनेक पुस्तकों का भी प्रणयन किया।
जन्म: सूर्य षष्ठी 16 नवम्बर, 1883
गोलोकवास: 12 जनवरी, 1955
पंडित गंगा शंकर मिश्र
पंडित गंगा शंकर मिश्र 1947 से वाराणसी, जयपुर, कलकत्ता व दिल्ली से प्रकाशित होने वाले सन्मार्ग के सम्पादक के रूप में जीवन पर्यन्त पत्रकारिता में संलग्न रहे। अत्यन्त धर्मभीरू होते हुए भी आपकी सफल पत्रकारिता प्रेरणादायक रही। साहित्य के प्रति आपका विशेष अनुराग था। आपका हिन्दी पत्रकारिता में योगदान भावी पत्रकारों के लिए पथ प्रदर्शक की भूमिका में सदैव रहेगा।
हरदोई जिले के भगवंत नगर में जन्मे गंगा शंकर जी को गंगा किनारे बसी काशी ने अंगीकार कर लिया। वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार से थे। इनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारसी में हुई। हाईस्कूल तक वहां पढ़ने के बाद आगे की शिक्षा के लिए अदब के शहर लखनऊ आ गये। यहां इन्हें ख्याति मिली। फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इतिहास में प्रथम श्रेणी में परास्नातक होने के बाद कमच्छा स्थित तत्कालीन तैलंग लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन का दायित्व निर्वहन किया तदंतर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित गायकवाड़ पुस्तकालय के अध्यक्ष पद पर आसीन हुए। आपने उपनिषद, पुराण, स्मृतियों, रामायण, महाभारत और आयुर्वेद का गहन अध्ययन किया। पुस्तकालय विज्ञान के क्षेत्र में सरल पद्धतियों का सूत्रपात करने का श्रेय मिश्र जी को जाता है। भारतीय संस्कृति के विभिन्न विषयों पर लगभग 280 लेखों का इनका निबंध संग्रह ‘छानबीन ’ ज्ञानमंडल यंत्रालय से ही प्रकाशित है। काशी से प्रकाशित ‘सन्मार्ग ’ का संपादन भी मिश्र जी ने गरिमामय ढंग से किया।
आपमें भारतीयता कूट-कूट कर भरी थी। आप हिन्दी और हिन्दू के भी बड़े पक्षधर थे। आपके सम्पादकत्व में सन्मार्ग ने जो प्रतिष्ठा हासिल की, वह शायद बहुत कम समाचार पत्रों ने हासिल की थी। उस समय के सन्मार्ग का सम्पादकीय विभाग उच्चकोटि का था जिसका नेतृत्व गंगा शंकर मिश्र ने किया था।
जन्म: सन् 1887
गोलोकवास: सन् 1972
पंडित लक्ष्मण नारायण गर्दे
सम्पादकाचार्य पंडित गर्दे हिन्दी पत्रकारिता के शलाका पुरुषों में एक थे। स्वदेशी आंदोलन के कारण ही आप पत्र सम्पादन के क्षेत्र से जुड़े। स्वाभिमान और विद्धत्ता आपमें कूट-कूट कर भरी थी। अपने जीवन काल के अंतिम वर्षों में आपने ‘नवजीवन ’ में एक ऐसा लेख लिखा जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुशासन का समर्थन किया था। इस पर ‘एसोसिएटेड जर्नल्स ’ के तत्कालीन निदेशक फिरोज गांधी ने उनसे केवल इतना ही पूछा कि आपने ‘संघ ’ के अनुशासन का समर्थन क्यों किया? गर्दे जी ने नाराज होकर इस्तीफा दे दिया। कुछ ही दिन बाद सरदार पटेल ने भी संघ के अनुशासन का समर्थन कर गर्दे जी के विचार की पुष्टि की। इसी प्रकार डा॰ सम्पूर्णानंद ने एक पुस्तक ‘कर्मवीर गांधी ’ लिखी थी। जब उन्होंने उक्त पुस्तक गर्दे जी को दिखायी तो आपने कहा कि गांधी जी के आगे कर्मवीर विशेषण ठीक नहीं लगता। वे तो महात्मा है, अतः महात्मा शब्द लगाना चाहिए। सम्पूर्णानंद जी ने उनका सुझाव स्वीकार किया। पत्रकार महारथी गर्दे जी की जीवन धारा तिलक युग की उग्र राष्ट्रीयता से प्रेरणा पाकर पत्रकारिता की तरफ मुड़ गई। पत्र संपादन के क्षेत्र में प्रवेश करने का इनका प्रत्यक्ष कारण स्वदेशी आंदोलन था। समाचारों की अपेक्षा संपादकीय लिखने में इनकी गहरी रुचि थी। आप वैचारिकी को महत्व देते थे। गांधी जी के नाम के साथ व्याख्या सहित ‘महात्मा ’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले गर्दे जी ने ही किया था। संपादक के रूप में गर्दे जी का दैनिक, साप्ताहिक और मासिक तीनों प्रकार के पत्रों से संबंध रहा है। मन, वाणी और प्राण में आपने कभी विकार नहीं आने दिया और न ही कभी सिद्धांतों का परित्याग किया। योगिराज अरविंद ने इस पृथ्वी पर जिस मनोमयी संस्कृति से उच्चतर संस्कृति के अवतरण की जो साधना प्रक्रिया चलायी, उस साधना के गर्दे जी मौन साधक हैं। आप सच्चे राष्ट्रभक्त थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी से आपके निकट संपर्क थे।
जन्म: महाशिवरात्रि, 1889
गोलोकवास: 23 जनवरी, 1960
पंडित दिनेशदत्त झा
सम्पादन कला के आचार्य पंडित दिनेशदत्त झा ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हिन्दी पत्रकारिता के गौरवपूर्ण अध्यायों की रचना की है। आपने ‘आज ’ तथा ‘आर्यावर्त ’ के सम्पादन के माध्यम से आधुनिक पत्रकारिता के नवीन आदर्शों की प्रतिष्ठापना की। आपका विद्याव्यवसन, सहृदयता और सौजन्यता सदैव स्मरणीय रहेगा। आप भाषा की शुद्धता के इतने प्रबल समर्थक थे कि ‘आर्यावर्त ’ में प्रकाशित उनके अग्रलेखों के कारण तत्कालीन बिहार सरकार को अपनी भाषा नीति का परित्याग करना पड़ा।
पंडित दिनेश दत्त झा संपादन कला के आचार्य थे। इन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से हिंदी पत्रकारिता के गौरवपूर्ण अध्यायों की रचना की। साथ ही ‘आज ’ और ‘आर्यावर्त ’ के संपादन के माध्यम से आधुनिक पत्रकारिता के नवीन आदर्शों की प्रतिष्ठापना की। आपका विद्या व्यसन, सहृदयता और सौजन्यता स्मरणीय है। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान झा जी ने संवाददाता के कठिन कार्य का साहस के साथ निर्वहन किया और पीड़ित पक्ष की जिस तरह सेवा की, वह पत्रकारों की भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक है। आप पत्रकारिता के क्षेत्र में भाषा की शुद्धता के प्रबल समर्थक थे। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के हिमायती और व्याकरण के बहुत कायल थे। 1941 में जब दैनिक ‘आर्यावर्त ’ का प्रकाशन पटना से हुआ, तब झा जी प्रथम संपादक नियुक्त हुए। शब्दों के चयन, शब्द विन्यास, भाषा की चुस्ती और समाचारों के शीर्षक पर आपकी कड़ी निगाह रहती थी। झा जी कहते थे कि कम शब्दों में अधिक भाव हो, ऐसी भाषा का प्रयोग अखबारों में किया जाना चाहिए। शब्दों के वजन पर भी उनका ध्यान रहता था। कौन शब्द कहां, कैसे लिखा जाये, इसके आप मर्मज्ञ थे। आपका पहला जोर पत्रकार के कर्तव्य और फिर उसके अधिकार पर रहता था। हिन्दी और हिन्दू के परम शुभचिंतक थे। एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सपत्नीक रसिक मंडल की बैठक में झा जी के आवास पर उपस्थित हुए थे। पंडित तथा पांडित्य का आप खूब समादर करते थे।
जन्म: 13 अक्तूबर, 1893
गोलोकवास: 08 दिसम्बर, 1961
पंडित कमलापति त्रिपाठी
पंडित कमलापति त्रिपाठी का स्मरण व्यक्ति का नहीं, एक विचारधारा का स्मरण है। काशी पत्रकार संघ के संस्थापक सदस्यों में शामिल एवं प्रथम अध्यक्ष पंडित जी में गहरी धार्मिकता और धार्मिक सहिष्णुता का समन्वय था। उनका पत्रकार जीवन हस्तलिखित पत्रिका ‘कारागार ’ से शुरू हुआ। 1934 ई॰ में आप ने ‘आज ’ अखबार में पराड़कर जी के सानिध्य में सम्पादकीय जीवन शुरू किया और अपने विभिन्न विचारोत्तेजक लेखों के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता को उज्ज्वल रूप प्रदान किया। 1943 में आप ‘संसार ’ के प्रधान सम्पादक हुए। 20 वर्षों की पत्रकारिता के बाद आप राजनीति में सक्रिय हो गये और आपने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, भारत के रेलमंत्री एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष पद का कार्यभार कुशलतापूर्वक संभाला।
पंडित कमलापति त्रिपाठी के दौर की पत्रकारिता मिशनरी थी। पंडित जी की संवाद रचना में रोचकता होती थी और वे पाठको की रुचि तथा उनकी समस्याओं को लेकर लिखते थे। पंडित कमलापति त्रिपाठी जब प्रदेश मंत्रिमंडल में शामिल हुए, तब भी वे खुद को पत्रकार कहलाना ही पसंद करते थे। वे कहते थे कि परिस्थितियों ने मुझे राजनीतिक क्षेत्र में ला खड़ा किया किन्तु मूलतः अपने को मैं पत्रकार ही मानता हूं। जब भी अपने मित्र संपादकों व पत्रकारों को देखता हूं, तब सहज ही उनके प्रति अपनत्व और आत्मीयता का भाव जागृत हो जाता है। अपनी लेखनी से पंडित जी स्वाधीनता के पूर्व के भारत की दारुण दशा का कलात्मक शब्द चित्र खींच दिया करते थे। आप मानते थे कि हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना ही हमें सशक्त और समृद्ध बनाये रखने में सक्षम है। वे पत्रकार को देश और समाज का बहुत बड़ा सेवक मानते थे। वे लोकतंत्र में पत्रकारों की स्वाधीनता उतनी ही ज़रूरी समझते थे जितनी व्यक्ति स्वातंत्र्य। स्वतंत्रता का अर्थ स्वछंदता नहीं होता, यह उनकी धारणा रहती थी।
जन्म: 03 सितम्बर, 1905
गोलोकवास: 08 अक्टूबर, 1990
रामचन्द्र नरहर बापट
आबू रोड, राजस्थान में जन्मे बापट जी ‘स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है ’ सूत्र वाक्य के पोषक थे। बचपन में ही उन्हें बाल गंगाधर तिलक से मिलने का सौभग्य मिला और देश प्रेम की भावना का उन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। अमर क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद के साथ आपने पिस्तौल भी थामी और पराड़कर जी के सानिध्य में जमकर कलम भी चलायी। पराड़कर जी के सानिध्य में ‘संसार ’ दैनिक में कार्य शुरू किया। आपकी लेखनी में क्रांतिकारियों सरीखी तेजस्विता थी, तो पराड़कर जी जैसी तार्किकता भी। आपने ‘आज ’ और ‘हिन्दी दैनिक ’ में भी काम किया।
बापट जी आदर्श पत्रकारिता के प्रतिमान थे। उनके बहुआयामी जीवन के अनेक ऐसे संस्मरण हैं जो स्मृति पटल पर आते ही यह सोचने को विवश कर देते हैं कि पूरे जीवन विपरीत परिस्थितियों से जूझने वाला कलम का सिपाही कैसे चौरासी वर्ष तक दिलेरी के साथ जीवित रहा? आबू रोड (राजस्थान) में जन्मे बापट जी को स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारियों की जांबाजी ने बहुत आप्लावित किया।
बापट जी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। क्रांतिकारी साथियों के साथ उन्होंने जेल यात्रा भी की और फिर संपादकाचार्य पंडित बाबूराव विष्णु पराड़कर से 1946 में संपर्क होने के बाद काशी से प्रकाशित ‘संसार ’ से उन्होंने पत्रकारिता के सक्रिय जीवन में प्रवेश किया। बापट जी सिद्धांतवादी और समर्पित पत्रकार थे। क्रांतिकारी जीवन के निमित्त राजस्थान सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र प्रदान कर सम्मानित किया,साथ ही केन्द्र और राज्य सरकार ने उन्हें पेंशन की सुविधा भी दी।
जन्म: 4 सितम्बर, 1911
गोलोकवास: 31 जुलाई, 1996
मनोरंजन कांजिलाल
काशी की पत्रकारिता का इतिहास मनोरंजन कांजिलाल के बिना अधूरा है। आपने पत्रकारिता में कार्टून के माध्यम से जो पहचान बनायी, उससे काशी गौरवान्वित हुई है। आपके कार्टून गहरी चोट करने वाले होते थे। 1943 में काशी में जब दैनिक ‘संसार ’ का प्रकाशन शुरू हुआ, उसमें उनके कार्टून प्रकाशित हुए और वे लोकप्रिय होते गये। ‘आज ’ और ‘दैनिक जागरण ’ में भी उन्होंने सेवाएं दी। उनके कार्टूनों में समसामयिक विषयों पर तीखा प्रहार होता था, वहीं पाठकों के दिल में सीधे उतर जाने की सरलता भी थी। उनमें कलाकार के जन्मजात गुण थे।
अगर कांजिलाल की चर्चा नहीं की जाये तो काशी की पत्रकारिता का इतिहास मुकम्मल नहीं माना जायेगा। कांजिलाल बहुत सीधे-सादे व्यक्ति थे परन्तु कल्पनाशीलता कमाल की थी। हिंदी पत्रकारिता में उन्होंने कार्टून को प्रतिष्ठित किया। पहले वे कलकत्ता, वर्तमान का कोलकाता के एक मासिक पत्र में काम करते थे। दूसरे विश्व युद्ध में उन्हें कोलकाता छोड़ कर बनारस आना पड़ा और फिर बनारस के ही हो कर रह गये। प्यार भाव से उन्हें 'दादा ' संबोधन से पुकारा जाता था। बनारस आने पर जीवन यापन के लिए उन्होंने सिनेमा के पोस्टर बनाने शुरू किये। फिर जब ‘संसार ’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो वे अखबार से कार्टूनिस्ट के रूप में जुड़ गये। उनके चुटीले कार्टून पाठकों के मस्तिष्क पर छाप छोड़ने लगे। शोहरत बढ़ी और वे ‘आज ’ अखबार में आ गये। लगभग तीस साल तक एकनिष्ठ हो कर कांजिलाल दैनिक ‘आज ’ से जुड़े रहे। उनके कार्टूनों के प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग था। जब ‘दैनिक जागरण ’ का प्रकाशन काशी से शुरू हुआ तो वे वहां चले गये। विनयशील और जिज्ञासु कांजिलाल में भरपूर इंसानियत थी। कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
जन्म: 25 दिसम्बर, 1911
गोलोकवास: 14 दिसम्बर, 1985
विद्या भास्कर
आपके पिता आदिमूर्ति अपने समय के प्रतिष्ठित तमिल साहित्यकार थे। उन्होंने रंगून में ‘तमिल दैनिक ’ पत्र का प्रकाशन व संपादन किया। इसी परम्परा में विद्या भास्कर जी भी पत्रकारिता की ओर अग्रसर हुए। तमिल भाषी होते हुए भी आपने हिंदी भाषा का चयन किया। 1930-31 में एसोसिएटेड प्रेस के संवाददाता बने। फिर अनेक पत्रों से होते हुए ‘आज ’ दैनिक से जुड़े।
देश-विदेश की गतिविधियों पर उनकी विशेष पकड़ थी। ‘आज ’ में राष्ट्र भक्त नाम से उनका ‘अपना भारत ’ कालम खासा चर्चित रहा। आप 1946 में संयुक्त प्रांत सरकार के निमंत्रण पर सूचना विभाग में हिन्दी पत्रकारिता विभाग के अधिकारी नियुक्त हुए।
संस्कृत और हिंदी के प्रति भास्कर जी की विशेष रुचि थी। राष्ट्र भावना तथा पत्रकारिता के प्रति गहरा लगाव होने के चलते उनका नजरिया भी व्यापक था। संकीर्णता से वे कोसों दूर थे। 1927 में इनका पहला लेख ‘सरस्वती ’ में प्रकाशित हुआ था तदंतर ये ‘एसोसिएटेड प्रेस ’ से जुड़ गये। 'अग्रगामी ', 'आर्यावर्त ', 'राष्ट्र वाणी ' और ‘आज ’ में इन्होंने सेवायें दी।
इनकी प्रमुख कृतियों में ‘शेर शाह सूरी की जीवनी ’ और ‘राजा भोज की कहानियां ’ विशेष उल्लेखनीय है। भास्कर जी ने काशी की परंपरा को खुद में आत्मसात कर लिया था। आपमें प्रतिभा का अद्भुत भंडार था।
जन्म: 28 जून, 1913
गोलोकवास: 19 दिसम्बर, 1984
रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर
आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता के आचार्यश्री रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर को पत्रकारिता की अद्यतन प्रवृत्तियों को मूर्तरूप देने का श्रेय प्राप्त है। आपने सजग, सफल पत्रकार के रूप में देश-विदेश का पर्यटन कर अपनी समाचार यात्राओं का वर्णन-विवरण जिस अभिनव शैली में किया है, उनसे पत्रकारिता की नयी विधा को अभिव्यक्ति मिली है। जिस जमाने में अखबारों में टेलीप्रिंटर नहीं हुआ करते थे और तार के जरिए देर से मिलने वाले पुराने समाचारों को ही नए रूप में प्रकाशित करने को पत्रकारिता का कला माना जाता था, उस समय उन्होंने हर सूत्र से समाचार जुटाने की कला विकसित की। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उनकी यह विलक्षण प्रतिभा उभरकर सामने आयी।
मराठी होते हुए भी हिंदी के प्रति गहरी रुचि रखने वाले खाडिलकर जी पहले मराठी पत्रों में आलेख लिखा करते थे और यही से लेखन के प्रति गहरा लगाव हुआ जो उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में ले आया। वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक थे। यह सुयोग ही कहा जायेगा कि संपादकाचार्य पंडित बाबूराव विष्णु पराड़कर का उन्हें सानिध्य प्राप्त था। पराड़कर जी की छत्रछाया में वे एक सजग और चिंतनशील पत्रकार के रूप में स्थापित हुये। हर दृष्टि और सूत्र से वे समाचार संकलन में दक्ष थे। खबर की उनमें गहरी समझ थी। उन्होंने कुछ समय तक काशी से प्रकाशित ‘ख़बर ’ के प्रधान संपादक का दायित्व भी निभाया। पत्रकारिता के शलाका पुरुष पंडित लक्ष्मण नारायण गर्दे के सानिध्य में काम करने का इन्हें भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। खाडिलकर जी की प्रतिभा को देखते हुए इन्हें ज्ञानमंडल लिमिटेड का अध्यक्ष भी बनाया गया।
जन्म: 01 अप्रैल 1914
गोलोकवास: 1960
मोहन लाल गुप्त ‘भैयाजी बनारसी’
प्रमुख हास्य कवि, साहित्यकार मोहन लाल गुप्त ‘भैयाजी बनारसी ’ ने काशी की पत्रकारिता की अमूल्य सेवा की है। आपने समसामयिक घटनाओं पर तीखे तेवर लाकर उसमें रोचकता भरी। आपने वास्तविक अर्थों में अपने को ‘भैयाजी ’ साबित कर काशी तथा समस्त हिन्दी जगत को आलोकित किया। आपकी लोकप्रियता‘आज ’ में बाल संसद के दादा के रूप में थी। आपने 1965 में ब्रिटिश सूचना विभाग के निमंत्रण पर ब्रिटेन की यात्रा की और वहां के प्रमुख नेताओं का साक्षात्कार लिया। नेपाल नरेश के निमंत्रण पर नेपाल गये और भारत मैत्री हेतु सद्भावना यात्रा में भाग लिया। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान वहां भी गये और वहां के प्रमुख नेताओं से बात की। पाकिस्तानी आक्रमण के बाद सेना के आतिथ्य में कश्मीर के अग्रिम मोर्चों का दौरा भी किया।
भैया जी बनारसी का जन्म काशी के हबीबपुरा मुहल्ले में हुआ था। पारिवारिक पृष्ठभूमि काफी अच्छी थी। इण्टरमीडिएट और स्नातक की शिक्षा काशी से लेने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि प्रथम श्रेणी में हासिल की। भैया जी ने स्नातक छात्र जीवन से ही कथाएं लिखनी शुरू की। स्नातकोत्तर तक आते-आते इस विधा में अच्छी ख्याति अर्जित कर ली। इसके बाद उन्होंने अन्य विधाओं में भी लेखन प्रारम्भ किया। भैया जी की प्रकाशित कहानियों के संग्रह में ‘दो काली काली आंखें ’, ‘अनदेखे चित्र ’, ‘अनबोले चेहरे ’, ‘मखमली जूती ’, ‘बनारसी रईस ’, ‘चिरकुमारी सभा ’ आदि प्रमुख हैं। आपने 1937 ई. में ‘आज ’ अखबार में नौकरी शुरू की। आप साहित्य पृष्ठ के दक्ष सम्पादक माने जाते थे। इस अखबार के साहित्य पृष्ठ को उन्नत बनाकर देश में ख्याति दिलाने में आपका विशेष योगदान है। हास्य-व्यंग्य लेखन को ऊंचाई प्रदान की। आपकी सबसे अधिक लोकप्रियता ‘बाल संसद ’ के दादा के रूप में उस समय मिली, इसके सदस्यों की संख्या एक लाख से अधिक हो गई।
भैया जी ने लोकगीत, शेरो शायरी, यात्रा वृत्तान्त, रिपोर्ताज, पाती लेखन, संस्मरण आदि के माध्यम से हिन्दी साहित्य व पत्रकारिता की जो सेवा की वह अमूल्य निधि के समान है।
जन्म: 11 मई 1914
गोलोकवास: 24 अगस्त, 1996
ईश्वर चन्द्र सिनहा
ईश्वर चन्द्र सिनहा जी की पत्रकारिता में निर्भीकता के अतिरिक्त नगर ही नहीं, सम्पूर्ण पूर्वी उत्तर प्रदेश की समस्याओं का दर्द भी समाहित था। पत्रकारों के हितों के लिए आप सर्वदा समर्पित रहे। काशी पत्रकार संघ के लिए ‘पराड़कर स्मृति भवन ’ का निर्माण इनके चिन्तन, धुन में तल्लीनता और कर्म में विश्वास का ही सुफल है। फक्कड़ स्वभाव और गरीबों के प्रति हमदर्दी के चलते आपने अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा विनोवा भावे को, तो कुछ अन्य गरीबों को दान में दिया था। राष्ट्रीयता की भावना ऐसी थी कि स्कूली जीवन के दौरान ही स्वतंत्रता आंदोलन में आप कूद पड़े और जेल भी गए। आपके पत्रकारिता के जीवन की शुरूआत ही गुप्त रूप से प्रकाशित होने वाली ‘रणभेरी ’ से हुई।
सिनहा जी की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी से हुई। 1930 ई. में स्वतंत्रता आन्दोलन में गिरफ्तार हो जाने पर हाईस्कूल की परीक्षा नहीं दे सके। आप 1930, 1941 और 1942 ई. में जेल भी गये। 1930 ई. में दो बार गिरफ्तार हुए। आप कांग्रेस कमेटी में विभिन्न पदों पर भी रहे। 'रणभेरी ' के अतिरिक्त 1932 ई. में प्रकाशित उर्दू ‘हमदम ’ के संवाददाता रहे। 1944 में आचार्य नरेन्द्र देव जी की देखरेख में प्रकाशित साप्ताहिक ‘हिन्दी केसरी ’ के सम्पादक बनाये गये। 1946 से 1950 ई. तक वाराणसी से प्रकाशित दैनिक ‘सन्मार्ग ’ के विशेष संवाददाता रहे। इसके बाद ‘आज ’ में मुख्य संवाददाता, विशेष संवाददाता, युद्ध संवाददाता तथा वरिष्ठ सहायक सम्पादक रहे। 25 फरवरी 1972 ई. को ‘जनवार्ता ’ के प्रधान सम्पादक पद पर रहते हुए 1980 में अवकाश ग्रहण किया। तत्पश्चात 1984 ई. तक इस पत्र के परामर्शदाता रहे।
सिनहा जी ने भोजपुरी भाषा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। भोजपुरी को जनसामान्य के साथ ही विद्वानों तथा विचारकों के बीच भाषा के रूप में स्वीकार कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनेक विद्वानों को भोजपुरी में लिखने के लिए प्रेरित किया। सिनहा जी का भोजपुरी कहानियों का संग्रह ‘गहरेबाजी ’ काफी चर्चित है। यह पुस्तक बिहार में पुरस्कृत की गई। ‘दस्तखत ’ शीर्षक कहानी प्रथम अकहानी के रूप में पुरस्कृत हुई। आप काशी पत्रकार संघ, उत्तर प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार यूनियन, इण्डियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट के स्थापना काल से ही जुड़े थे।
जन्म: 06 जुलाई, 1914
गोलोकवास: 09 फरवरी, 2004
कमला प्रसाद अवस्थी ‘अशोक’
आपकी गणना प्रतिभाशाली छात्रों में होती थी। हिन्दी अंग्रेजी व संस्कृत पर एकाधिकार था। पहले मासिक 'गीताधर्म' के सहायक संपादक हुए। शिक्षक का दायित्व भी निभाया। 1936 में आपका पहला कविता संग्रह ‘अशोक मंजरी ’ प्रकाशित हुआ। निबंध संग्रह ‘काव्यदीप ’ भी चर्चित हुआ। आप स्वयं में शब्दकोश थे।
'अग्रगामी ', 'संसार ' व 'आज ' सहित अनेक पत्रों में अपनी सेवाएं दी। अशोक जी शहर की साहित्यिक गतिविधियों के केन्द्र हुआ करते थे। साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में नवांकुरों को उन्होंने प्रोत्साहित किया।
अवस्थी जी साप्ताहिक ‘स्वदेश ’ (गोरखपुर), ‘सन्मार्ग ’ दैनिक में भी रहे। उन्होंने प्रयाग से प्रकाशित ‘अमृत पत्रिका ’ व ‘भारत ’ में भी सम्पादन का दायित्व संभाला। उन्होंने दैनिक ‘आज ’ में सहायक सम्पादक के रूप में कार्य करते हुए 1972 में दुर्गा सप्तशती का पद्यानुवाद कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस महापुरुष का स्वतंत्रता संग्राम में भी योगदान था। ऐसे समय में उनकी आग उगलती लेखनी चुप न रही।
अवस्थी जी ने जीवन के अंतिम दिनों में सांध्य दैनिक ‘गांडीव ’ में अनुबंधित समाचार सम्पादक के रूप में वर्षों तक कार्य किया। अवस्थी जी की सरलता, मृदुभाषिता और विद्वता के आगे लोग नतमस्तक थे। हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषा पर अवस्थी जी का एकाधिकार था।
अवस्थी जी समाचार पत्र कार्यालय में भी हमेशा तनाव मुक्त रहते थे। वह कशी की साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में हमेशा संलग्न रहते थे। कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं, जो उनके बिना पूर्ण होता रहा हो। कितनी भी परेशानियों में रहें, किसी से बताते नहीं थे। वह शुद्धतः अहिंसा के पुजारी थे। बजड़े पर होने वाली संगोष्ठियों में उन्हें जरूर बुलाया जाता। उनके बिना कार्यक्रम अधूरा सा लगता था।
जन्म: 01 दिसम्बर, 1914
गोलोकवास: 05 मई 1998
दूधनाथ सिंह
गीता जयंती के दिन जन्मे दूधनाथ सिंह ने गीता के निष्काम कर्म के सिद्धान्त को अपने जीवन में भी आत्मसात किया। जुझारू स्वभाव ऐसा था कि पांच वर्ष की उम्र में पिता का साया उठ जाने के बाद घोर अर्थाभाव के बावजूद पढ़ाई नहीं छोड़ी, भले ही इसके लिए अपने मुस्तफाबाद स्थित घर से यूपी काॅलेज की लगभग 10 किलोमीटर की दूरी दौड़ लगाकर तय करनी पड़ती हो। 'संसार ', 'सूर्य ', 'आज ' और 'आर्यावर्त ' में अपनी सेवाएं दी। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और बंगला भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। 13 अन्य भाषाओं पर भी इनकी मजबूत पकड थी। आपके शिष्य इन्हें चलती फिरती ‘डिक्शनरी ’ कहा करते थे।
बाबू दूधनाथ सिंह ने आजादी से पूर्व पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया तो एक साथ ज्योतिष, विज्ञान, अध्यात्म, साहित्य, गणित, इतिहास, भूगोल, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला, उर्दू भाषाओं के ज्ञाता बहुत कम लोग थे। उस समय उन्हें विज्ञान विषय में लेखन की महारत हासिल थी। इनके लेखों में तथ्यों की भरमार थी। विज्ञान जैसे नीरस विषय को रुचिकर बनाना तथा भाषा शैली को संजोकर लेख में स्थान देना उनकी विशेषता थी। उन्होंने ‘सन्मार्ग ’, ‘सूर्य ’, ‘आज ’, ‘अमृत पत्रिका ’ (बाद में अमृत प्रभात) और ‘दैनिक जागरण ’ वाराणसी के सम्पादकीय विभाग में प्रमुख दायित्व का निर्वहन किया और अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। ‘आज ’ के अतिरिक्त अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इनके लेख आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक हैं।
वह जीवन के अंतिम समय तक पत्रकारिता में सक्रिय रहे। ‘दैनिक जागरण’ के सम्पादकीय प्रभारी थे। वह अनुशासन प्रिय थे। गलतियों को बरदास्त नहीं करते थे। उसका तुरन्त विरोध कर देते थे। आजकल ऐसे जीवट पत्रकार का होना दुर्लभ है।
जन्म: 19 दिसम्बर 1914
गोलोकवास: 30 सितम्बर, 1984
पारसनाथ सिंह
पराड़कर परम्परा के प्रमुख पत्रकारों में शामिल बाबू पारसनाथ सिंह ने 1942 में बिहार सरकार के सूचना विभाग में ‘पटना समाचार ’ डेली से पत्रकारिता की शुरूआत की। 1950 में आपने दैनिक ‘आज ’ में पराड़कर जी के सानिध्य में काम शुरू किया और आगे बढ़ते गये। इस दौरान संसद की रिपोर्टिंग से उन्हें विशेष ख्याति मिली। आपको 1990 में भारत सरकार की ओर से गणेश शंकर विद्यार्थी स्मृति पुरस्कार प्रदान किया गया। आपने लगभग 30 पुस्तकों की भूमिका व प्राक्कथन लिखे।
पारसनाथ सिंह ने 1943 में पटना से प्रकाशित दैनिक ‘आर्यावर्त ’, 1946 में काशी के ‘सन्मार्ग ’ में भी काम किया। वह 1950 में ‘आज ’ दैनिक से जुड़े। उस समय बाबू राव विष्णु पराड़कर ‘आज ’ के सम्पादक थे। पराड़कर जी के 1955 में गोलोकवास के बाद भी वह ‘आज ’ में रहते हुए अपनी प्रतिभा बिखेरते रहे। पारसनाथ सिंह जी पहले ऐसे पत्रकार थे जिन्हें 1963 में संसद के समाचार कवरेज हेतु विशेष संवाददाता बनाया गया। कानपुर से 1975 ई. में ‘आज ’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तो वह इसके सम्पादक नियुक्त किये गये। 1979 में उन्हें ‘आज ’ का सम्पादक बनाया गया।
पारसनाथ जी की प्रतिभा किसी से छिपी नहीं थी। अन्य समाचार पत्र प्रबंधन भी इनकी कार्यशैली से परिचित थे। पारसनाथ सिंह ने ‘आज ’ से अवकाश ग्रहण के बाद 1981 ई. में पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘प्रदीप ’ में बतौर सम्पादक नौकरी प्रारम्भ की। ‘प्रदीप ’ बिड़ला ग्रुप का अखबार था। जब ‘प्रदीप ’ को बंद कर ‘हिन्दुस्तान ’ का प्रकाशन के. के. बिड़ला ने प्रारम्भ किया तो उन्होंने पारसनाथ सिंह को सम्पादक का दायित्व संभालने को कहा। उन्होंने कुछ दिनों तक ‘हिन्दुस्तान ’ में कार्य के बाद नौकरी छोड़ दी और अध्ययन-अध्यवसाय में लगे रहे।
जन्म: 17 जुलाई, 1916
गोलोकवास: 15 अक्टूबर, 2015
नवल किशोर राय
काशी की पत्रकारिता में नवल किशोर राय जी का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपने जीवन का लम्बा समय पत्रकारिता में व्यतीत किया। उनका पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण 1939 ई. में पं. गोविन्द शास्त्री दुगवेकर जी द्वारा सम्पादित ‘गृहस्थ ’ पत्रिका से हुआ। पं. दुगवेकर जी ईश्वर के बहुत बड़े भक्त थे। पूजा के लिए प्रयुक्त सामग्री जुटाने का कार्य नवल जी के जिम्मे था। प्रातःकाल गंगा स्नान कर नियमित उनके घर जाते और प्रसाद लेकर लौटते। वह कहा करते थे कि पं. दुगवेकर जी की कृपा और गर्दे जी के आशीर्वाद से पत्रकारिता में आया। उन्हें बाबू राव विष्णु पराड़कर और अम्बिका प्रसाद वाजपेयी का स्नेह भी मिला। कारण कि नवल जी का जन्म काशी की चॅंवरगली में वहीं हुआ था, जहां उक्त विभूतियां रहती थीं।
नवल जी ‘गृहस्थ ’ में सहायक सम्पादक पद पर नियुक्त हुए। इसके बाद ‘संसार ’ साप्ताहिक में भी कार्य किया, जहां उन्हें मूर्धन्य पत्रकारों का स्नेह मिला। उन्होंने अपना सर्वाधिक जीवन ‘आज ’ में बिताया। 1950 ई. में बाबू राव विष्णु पराड़कर ने उन्हें ‘आज ’ में उपसम्पादक पद पर नियुक्त किया। यहां 27 वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने ज्ञानमंडल यंत्रालय द्वारा प्रकाशित और रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर द्वारा सम्पादित ‘खबर ’ में भी उप सम्पादक पद पर कार्य किया था। नवल जी ने अधिसंख्य लेख और टिप्पणियां लिखीं। वह अनुवाद और समाचार लेखन में काफी दक्ष थे। अच्छे पत्रकार होने के साथ ही कवि, साहित्यकार रहे। वह अपना गुरु आचार्य पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र और हास्य रसावतार कृष्णदेव प्रसाद गौड़ ‘बेढब बनारसी ’ को मानते थे। उन्होंने राधाकृष्ण और अरविंद घोष के अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया तथा दर्शन शास्त्र पर उच्चकोटि के लेख लिखे। उनके 50 से अधिक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। नवलकिशोर जी को उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वतंत्रता आन्दोलन में लेखन के माध्यम से योगदान के लिए 20 हजार रुपये की नकद राशि से सम्मानित किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग ने अपनी कौस्तुभ जयंती पर उन्हें सम्मानित किया। इनके साथ सम्मान पाने वाले लोगों में प. लक्ष्मीशंकर व्यास, मोहनलाल गुप्त ‘भैया जी बनारसी ’ और कमला प्रसाद अवस्थी ‘अशोक ’ भी थे। नवलकिशोर राय जी 1961 से 1964 ई. तक काशी पत्रकार संघ के अध्यक्ष भी रहे।
जन्म: 22 फरवरी 1920
गोलोकवास: 19 अक्टूबर 1992
लक्ष्मी शंकर व्यास
डॉ॰ लक्ष्मी शंकर व्यास की गणना हिंदी के लब्ध संपादकों और साहित्यकारों में होती है। 1938 से 1988 के दौरान उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। भारतीय इतिहास में उनका शोध है। 1947 से 1954 तक ‘आज’ का संपादन और अग्रलेख लेखन किया। राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित डॉ॰ व्यास को प्रतिष्ठापरक अंबिका प्रसाद वाजपेयी स्वर्ण पदक, भारतेंदु पुरस्कार, हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य महामहोपाध्याय सहित कई पुरस्कार मिले। उन्हें विक्रम शिला विद्यापीठ द्वारा ‘विद्या वाचस्पति ’ की मानद उपाधि से भी अलंकृत किया गया। प्रदेश सरकार की ओर से पत्रकारों के लिए गठित मान्यता समिति और सूचना विभाग की सलाहकार समिति के सदस्य के साथ काशी पत्रकार संघ के अध्यक्ष भी रहे। पराड़कर जी और पत्रकारिता, संपादक पराड़कर, चैलुक्य कुमार पाल (पुरस्कृत शोध प्रबंध) उनकी प्रमुख कृतियां हैं।
पं. लक्ष्मी शंकर व्यास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह बाबू राव विष्णु पराड़कर के बेहद करीब थे। पराड़कर जी की प्रेरणा से ही उनकी लेखनी पैनी हुई। व्यास जी ने अपनी पुस्तक ‘सम्पादक पराड़कर’ की भूमिका में लिखा है-1947 ई. से 1955 ई. के आरम्भ तक पराड़कर जी के चरणों में बैठकर कार्य करने का सौभाग्य इन पंक्तियों के लेखक को प्राप्त रहा है। इस बीच आपके निर्देशन में वर्षों अग्रलेख-टिप्पणी लेखन का अवसर प्राप्त हुआ। जब मैं ‘आज’ साप्ताहिक विशेषांक का प्रभारी सम्पादक था तो आपके ही निर्देशानुसार प्रति सप्ताह राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर साप्ताहिक सिंहावलोकन लिखा करता था। प्रतिदिन प्रातःकाल ‘आज ’ कार्यालय आकर पराड़कर जी पत्र के नवीनतम संस्करण को देखकर तत्काल लेख-टिप्पणी का चयन करते। वे सबसे महत्वपूर्ण विषय पर अग्रलेख लिखने का चिह्न लाल पेंसिल से लगा देते थे। अधिकतर वे स्वयं लेख लिखते और टिप्पणी-लेखन का आदेश मुझे देते थे।
जन्म: 03 जुलाई, 1920
गोलोकवास: 04 दिसंबर, 1995
चन्द्र कुमार
बहुमुखी प्रतिभा के धनी चन्द्र कुमार ने 22 वर्ष की उम्र में ही पत्रकारिता जीवन में प्रवेश किया। 1946 में ‘जयहिंद ’ अखबार में कार्य करने के बाद 1947 में ‘आज ’ के संपादकीय परिवार में शामिल हुए। आप 1992 तक ‘आज ’ से संबद्ध रहे। आपने पत्रकारिता के सफल शिक्षक के रूप में भी पहचान बनायी। कला और संस्कृति के अलावा चन्द्र कुमार जी को अन्तर्राष्ट्रीय विषयों का गहन ज्ञान था। 1967 और 1981 में उन्होंने इंग्लैंड और अमेरिका की शैक्षिक यात्रा भी की। 1967 में उन्होंने उत्तरी इंग्लैंड में इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट के फेलो के रूप में कार्य किया। उनको कहानी तथा एकांकी लिखने का भी शौक था। उनकी कई अनुदित पुस्तकें प्रकाशित हैं।
चन्द्र कुमार जी आरम्भ में इलाहाबाद व कानपुर के पत्रों में लेख लिखते थे। बंगाल के अकाल के समय आपने ‘हंस ’ में अकाल संबंधी रचनाएं प्रस्तुत की, जो मानवतावादी दृष्टिकोण की परिचायक हैं। आपकी अनूदित पुस्तकें ‘आजादी की कीमत ’, ‘भागीदारी ’, ‘लोकतंत्र और चांद पर मानव चरण ’ हैं। उन्होंने पत्रकारिता संबंधी पुस्तक लेखन की भी योजना बनायी थी, परन्तु अचानक गोलोकवास हो जाने के कारण संभव नहीं हो पाया। चन्द्र कुमार जी ने जीवन के 50 वर्ष पत्रकारिता में ही बिताये। इसके बाद अध्ययन - अध्यापन का कार्य किया।
हिन्दी पत्रकारिता को नया आयाम देने में चन्द्र कुमार जी की भूमिका प्रमुख रही। ‘आज ’ में कार्य करते हुए राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समाचारों को सन्दर्भ सहित प्रस्तुत करना हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में नयी प्रवृत्ति का सूचक था। आपने समय-समय पर अनेक स्तम्भों का लेखन किया। अनेक वर्षों तक सम्पादकीय लेखन में भी सहयोग किया। ‘आज ’ में मनोरंजक और ज्ञानवर्धक टिप्पणियां ‘रंग तरंग ’ स्तम्भ में लिखकर पाठकों को श्रेष्ठ और सुरुचिकर सामग्री उपलब्ध करायी।
जन्म: 21 जून, 1921
गोलोकवास: 06 मार्च, 1995
राजकुमार
काशी की हिन्दी पत्रकारिता में आपका नाम बड़े गर्व से लिया जाता है। अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दी पत्रकारिता के साथ-साथ देश व समाज को अर्पित किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जेल यात्रा की। पंडित कमलापति त्रिपाठी के प्रधान संपादकत्व में आपने अनेक पत्रों का संपादन किया। राजकुमार जी यात्रा वृत्तान्त लिखने में सिद्धहस्त थे। आप द्वारा लिखित पुस्तक ‘पाकिस्तान टूट गया ’ और ‘भारत का राजनीतिक इतिहास ’ (1757 से 1960) चर्चित रही। आपको स्वतंत्रता सेनानी ताम्रपत्र से 1972 में सम्मानित किया गया।
राजकुमार जी का भारत और भारतीयता के प्रति अगाध प्रेम था। उनमें राष्ट्रीयता का भाव कूट-कूट कर भरा था। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान काशी से प्रकाशित दैनिक ‘संसार ’ ने पत्रकारिता के क्षेत्र में काफी ख्याति अर्जित कर ली थी। उन्होंने इस पत्र की ओजस्विता से प्रभावित होकर इसमें लेखन प्रारम्भ किया और कम समय में अच्छी पैठ बनायी। यहीं से उनके पत्रकार जीवन का प्रारम्भ हुआ। उन्होंने 1947 ई. में प. कमलापति त्रिपाठी के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘युगधारा ’ (मासिक), ‘आंधी ’, ‘ग्राम संसार ’ में भी लिखा व सम्पादन किया। आपके आग उगलते लेखों की काफी प्रशंसा होती थी। उनके लेख तथ्यपरक होते थे और उनमें कसावट थी।
राजकुमार जी पर पत्रकारिता का भूत जीवन भर सवार रहा। उन्होंने 1950 में ‘बनारस ’ नामक दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित किया, जो काफी लोकप्रिय हुआ। हृदय रोग से पीड़ित होने के कारण 1965 ई. में ‘बनारस ’ का प्रकाशन बन्द कर देना पड़ा। इसके बाद 1967 ई. में ‘आ गया ’ साप्ताहिक का प्रकाशन बुलानाला से किया। इस पत्र में हर विषय का प्रकाशन होता था। ‘आ गया ’ 10-12 वर्षों तक चला। इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र लेखन शुरू किया। वे ‘आज ’, ‘गांडीव ’ आदि पत्रों में आजीवन लिखते रहे।
जन्म: 09 नवम्बर, 1921
गोलोकवास: 20 अगस्त, 2005
विश्वनाथ सिंह ‘दद्दू ’
विश्वनाथ सिंह ‘दद्दू ’ का नाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ ही कुशल पत्रकार के रूप में भी जाना जाता है। उन्हें 20 साल की उम्र में आजमगढ़ के खुरासो रेलवे स्टेशन फूंकने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। 1945 ई. में काशी विद्यापीठ से पत्रकार कला परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वह दैनिक ‘संसार ’ से जुड़े। इस पत्र के रविवासरीय अंक में उनके विभिन्न विषयों पर प्रकाशित लेखों की खूब प्रशंसा होती थी। भारत जब 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ तो विश्वनाथ सिंह ‘संसार ’ छोड़कर ‘आज ’ में चले आए और मृत्युपर्यन्त यहीं रहे। उन्हें बाबूराव विष्णु पराड़कर और पं. कमलापति त्रिपाठी का सान्निध्य मिला। ‘आज ’ में सहायक सम्पादक के रूप में अनेक विशेषांकों का सम्पादन किया, जिसमें काशी विशेषांक काफी सराहा गया। विश्वनाथ सिंह को रिपोर्टिंग से लेकर सम्पादन तक में महारत हासिल थी। उन्होंने प्रथम पृष्ठ से लेकर अन्य पृष्ठों पर भी काम किया। साहित्य हो या संगीत या देश-विदेश एवं राजनीति, सभी विषयों पर 'दद्दू ' की कलम चलती थी। उनकी संगीत में विशेष रुचि थी। काशी की प्राचीन संस्था संगीत परिषद से भी वह जुड़े रहे। 'दद्दू' ने अपने जीवन में नवोदित कलाकारों को खूब प्रोत्साहित किया। प्रख्यात शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां को अखबारों की सुर्खियों में लाने का श्रेय उन्हीं को ही है। बिस्मिल्ला खां की पहली भेंटवार्ता उन्होंने ही ‘आज ’ में प्रकाशित की थी। विश्वनाथ सिंह ‘दद्दू ’ काशी पत्रकार संघ के 1946-47 में मंत्री भी रहे। ज्ञातव्य हो कि इस अवधि में सम्पादकाचार्य पं. लक्ष्मीनारायण गर्दे काशी पत्रकार संघ के अध्यक्ष थे। विश्वनाथ जी में सादगी कूट-कूट कर भरी थी। कर्म में वह पूर्ण विश्वास रखते थे। कबीर साहित्य के भी बहुत बड़े मर्मज्ञ थे। उनकी हिन्दी के अतिरिक्त बंगला एवं अग्रेजी भाषा पर भी अच्छी पकड़ थी।
विश्वनाथ सिंह के रोम-रोम में अंग्रेज व अंग्रेजियत के खिलाफ भाव भरा था। उन्होंने ब्रिटिश शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया। इसीलिए इण्टर की पढ़ाई कलकत्ता से पूरी करने के बाद काशी विद्यापीठ में दाखिला लिया था।
जन्म: 01 जनवरी 1923
गोलोकवास: 16 नवंबर 1990
श्यामा प्रसाद शुक्ल ‘प्रदीप ’
आप काशी की हिन्दी पत्रकारिता के मजबूत स्तम्भ रहे हैं। भारत छोड़ो आंदोलन में भी आपने सक्रिय भागीदारी की। 1948 में आप दैनिक विश्वमित्र (कानपुर) के संपादकीय विभाग के सदस्य बने। लगभग 32 अखबारों में अनेक पदों पर आसीन रहे। आपको आचार्य नरेन्द्र देव, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, बाबू गोविंद दास जैसे मूर्धन्य नेताओं का सानिध्य प्राप्त था। आपातकाल में जेल यात्रा की। 1978 से 1984 तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के नामित सदस्य रहे। राज्य सूचना नीति निर्धारण आयोग के डिप्टी चेयरमैन भी रहे। स्थानीय जनवार्ता को आपका मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। जीवनपर्यंत आप अध्यवसायी रहे।
प्रदीप जी अद्भुत व्यक्ति रहे। उन पर पत्रकारिता का नशा सवार था। तमाम नौकरियां की, लेकिन उन्हें पत्रकारिता ही अच्छी लगी। वह 1948 ई. में ‘दैनिक विश्वमित्र ’ (कानपुर) में नियुक्त हुए। दैनिक ‘जयहिन्द ’ (जबलपुर), ‘संसार ’ और ‘आज ’ (वाराणसी), ‘लीडर ’ और ‘भारत ’ (इलाहाबाद), ‘प्रयाग पत्रिका ’, ‘सैनिक ’ (आगरा), ‘जनवार्ता ’ (वाराणसी), साप्ताहिक ‘एवरीमैन ’ और ‘इण्डियन एक्स्प्रेस ’ (नयी दिल्ली) तथा ‘तरुण भारत ’ (लखनऊ) आदि में उप सम्पादक, मुख्य उप सम्पादक, विशेष संवाददाता, समाचार सम्पादक, सहायक सम्पादक, प्रधान सम्पादक और सम्पादकीय सलाहकार पदों पर काम किया। वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के सम्मानित प्रवक्ता तथा परीक्षक भी रहे। उन्होंने सर्वसेवा संघ, (राजघाट, वाराणसी) के लिए अशोक मेहता की पुस्तकों ‘डेमोक्रेटिक सोशलिज्म ’ और ‘स्टडीज इन एशियन सोशलिज्म ’ का ‘लोकतांत्रिक समाजवाद ’ तथा ‘एशियाई समाजवाद: एक अध्ययन ’ और कैथोलिक लांसडेल की पुस्तक ‘इज़ पीस पासिबिल ’ का ‘क्या विश्वशांति संभव है? ’ नाम से अनुवाद भी किया है।
जन्म: 14 अगस्त, 1926
गोलोकवास: 13 जनवरी, 2004
आनंद बहादुर सिंह
वाराणसी में भदैनी के प्रतिष्ठित जमींदार टोडर के कुल में जन्मे आनंद बहादुर सिंह ने जीवन पर्यन्त एकनिष्ठ हो कर दैनिक ‘सन्मार्ग ’ से जुड़ कर पत्रकारिता धर्म का निर्वहन किया। आप 16 वर्ष की अल्पायु में ही स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हुए और धर्मसंम्राट स्वामी करपात्री जी के कृपापात्र बने। तदन्तर स्वामी जी द्वारा संचालित ‘सन्मार्ग ’ से सम्बद्ध हुए। संपादक पंडित गंगा शंकर मिश्र के अस्वस्थ होने पर संपादक का दायित्व संभाला। तत्कालीन शंकराचार्य ब्रह्मलीन स्वरूपानंद सरस्वती और काशी विद्वत परिषद ने आपको संपादकाचार्य की उपाधि से अलंकृत किया। काशी पत्रकार संघ के मंत्री तदन्तर मानद सदस्य भी रहे। अल्प समय के लिए ‘संसार ’ से भी जुड़े रहे।
आपकी शिक्षा-दीक्षा श्री एस. एस. गौतम इंग्लिश स्कूल, हिन्दू स्कूल एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हुई। आपने धर्म सम्राट श्री करपात्री जी महाराज के निर्देश पर धर्मसंघ शिक्षा मंडल द्वारा संचालित धर्मसंघ महाविद्यालय से (‘क ’ वर्गीय मान्यता प्राप्त) मध्यमा, शास्त्री एवं साहित्य वाचस्पति (1974) की उपाधि प्राप्त की। विक्रमशिला विश्वविद्यापीठ ने विद्यावाचस्पति एवं बंगाल नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘पत्रकार शिरोमणि ’ की उपाधि से विभूषित किया। मानस राजहंस प. विजयानन्द त्रिपाठी से ‘विनय पत्रिका ’ एवं स्वामी करपात्री जी महाराज से मानस के ‘किष्किन्धा काण्ड ’ का अध्ययन किया। आपने 1943 में प. ब्रह्मानन्द त्रिपाठी के सम्पादकत्व में निकलने वाले साप्ताहिक ‘सन्मार्ग ’ में कार्यकर्ता के रूप में भूमिका निभायी। पुनः मासिक ‘सन्मार्ग ’ में सहयोगी बने। 1946 ई. में ओंकार परिषद की स्थापना एवं ‘तुलसी ’ नामक मासिक पत्रिका का छह मास तक प्रकाशन तथा ‘आज ’, ‘संसार ’, ‘धर्मयुग ’, ‘संगम ’, ‘सन्मार्ग ’ में लेखन करते हुए 1952 ई. में ‘सन्मार्ग ’ के सम्पादकीय विभाग में कार्य करना प्रारम्भ किया। अग्रलेखन में आपकी निपुणता को देखते हुए स्वामी करपात्री जी महाराज ने आपको ‘सन्मार्ग ’ अखबार का आजीवन सम्पादक बने रहने का आदेश दिया।
जन्म: 29 अगस्त, 1930
गोलोकवास: 01 जुलाई, 2017
दीनानाथ गुप्त
आपने पारिवारिक व्यवसाय में न जाकर पत्रकारिता के क्षेत्र को प्राथमिकता दी। ‘इण्डियन एक्सप्रेस ’ के संवाददाता के रूप में पत्रकारिता शुरू करते हुए आपने 'संसार ', 'आज ' और 'दैनिक जागरण ' में अपनी सेवाएं प्रदान की। लगभग 34 वर्षों के पत्रकारिता जीवन के दौरान रिपोर्टिंग क्षेत्र को गुप्त जी ने नई धार दी। जीवनपर्यंत आपने श्रमसाध्य पत्रकारिता को अंजाम दिया। अंतिम समय तक खुद को पत्रकारिता का सामान्य छात्र ही समझा। आपकी लेखनी सशक्त थी। जो कुछ लिखा संतुलित मस्तिष्क से बिना नमक-मिर्च लगाए लिखा। पराड़कर युगीन रिपोर्टिंग की दीनानाथ गुप्त जी अंतिम कड़ी थे।
दीनानाथ जी की लेखनी बेजोड़ थी। विषय के अनुरूप शब्दों का चयन उनकी विशेषता थी। ‘आज ’ में रहते हुए उन्होंने काफी ख्याति अर्जित की। 1981 ई. से काशी से जब ‘दैनिक जागरण ’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो वह वहां के लोगों के साथ उसमें चले आए और मृत्युपर्यन्त मुख्य समाचार सम्पादक पद पर बने रहे। दीनानाथ जी ने अपनी कलम से हमेशा कमजोर व्यक्ति का पक्ष रखा। अपने 34 वर्षों के पत्रकारिता जीवन में कुछ वर्षों को छोड़ अधिकांश अवधि सिटी रिपोर्टिंग को समर्पित किया। वह अत्यन्त मृदुभाषी थे। उनके कार्य का कोई समय नहीं था। समाचार पत्र कार्यालय को ही अपना दूसरा घर समझते थे। उनमें निष्ठा, लगन व ईमानदारी कूट-कूट कर भरी थी। अपने जीवनकाल में उन्होंने कभी किसी के प्रति दुराग्रह या पूर्वाग्रह नहीं पाला और सच्चे अर्थों में पत्रकार का जीवन व्यतीत किया। कभी अपने पद का दुरुपयोग कर अनुचित लाभ भी नहीं उठाया। बेबाक लेखन उनकी विशेषता थी। ‘दैनिक जागरण ’ में चित्रगुप्त नाम से उनका साप्ताहिक स्तम्भ ‘इतवार की बात ’ को पाठक आज भी नहीं भूलते। नगर की समस्याओं को काफी नजदीक से देखने के बाद ही वह स्तम्भ लिखते। वह उसका छिद्रान्वेषण ही नहीं करते, वरन् निदान का रास्ता भी सुझाते थे। दीनानाथ जी की लेखनी पत्रकारों की समस्याओं पर भी चली। उन्होंने संतुलित मस्तिष्क से बिना तैश में आये व नमक-मिर्च लगाये बगैर लिखा। उन्होंने नये पत्रकारों को वैज्ञानिक नजरिये से दीक्षित किया। आज के समय में व्यक्तित्व-कृतित्व के धनी ऐसे पत्रकार का होना दुर्लभ है।
जन्म: 15 अक्टूबर, 1931
गोलोकवास: 14 फरवरी, 1987
ईश्वरदेव मिश्र
बांसडीह (बलिया) में 01 मार्च 1936 को जन्मे ईश्वरदेव मिश्र का जीवन पत्रकारों के प्रति समर्पित था। पत्रकारों की लड़ाई लड़ने में वे सदैव तत्पर रहते थे। उनके मन में पत्रकार समुदाय के प्रति एक व्यापक खाका था। वे निर्भीक पत्रकार तो थे ही, अपनेपन का बोध व्यवहारिक रूप से भी करा देते थे। मिश्र जी ने अपनी लेखनी से पत्रकारिता जगत को नयी दिशा दी। रेलवे में चयनित होने के बाद भी उन्होंने पत्रकारिता को मिशन के तौर पर अपनाया। ‘भारत ’ और ‘लीडर ’ में सेवा के बाद 31 वर्ष की आयु में वे ‘सन्मार्ग ’ के सम्पादक बने, बाद में ‘जनवार्ता ’ का प्रकाशन शुरू किया और 32 वर्षों तक उसके सम्पादक रहे। 1975 से 1979 तक आप उ.प्र. श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष रहे। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र सम्पादक सम्मेलन, अ.भा. लघु एवं मध्यम समाचार पत्र एसोसिएशन का लंबे समय तक नेतृत्व किया। विश्व पत्रकारिता के इतिहास पर उन्होंने हिन्दी में पहली पुस्तक लिखी।
ईश्वर देव मिश्र का काशी की हिंदी पत्रकारिता में अपना अलग स्थान था। हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। अत्यंत मृदुभाषी मिश्र जी में ओजस्विता तथा तेजस्विता का अद्भुत समन्वय था। आपातकाल में अन्य अखबारों के संपादकों की तरह इनको भी इंदिरा सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा, परन्तु इन्होंने विवेक से काम लिया और इनका धारदार लेखन जारी रहा। जब मिश्र जी ‘लीडर ’ अखबार में थे, तब से श्रमिक हितों के लिए संघर्षरत रहे। ‘लीडर ’ के श्रमिकों के हित में इन्होंने 26 दिनों तक चली हड़ताल का नेतृत्व किया। इनके अग्रलेख और संपादकीय टिप्पणियां ज्ञानवर्धक होती थीं। कोई भी पुस्तक लिखने के पहले आप तथ्य जुटाते थे, तब लिखते थे। यह इनका जुनूनी स्वभाव था। पन्द्रह-पन्द्रह घंटे काम करने से इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता गया। पराड़कर स्मृति भवन में अपनी पुस्तक 'विश्व पत्रकारिता का इतिहास ' का कार्य सम्पन्न कराकर एक आयोजन में जाते हुए बुलानाला के पास हृदयगति रुकने से इन्होंने इस संसार से विदा ले ली।
जन्म: 01 मार्च, 1936
गोलोकवास: 15 जुलाई, 2003
आनंद चंदोला
उत्तराखंड से आकर काशी बसे संभ्रांत चंदोला परिवार के कुशाग्र सदस्य थे आनंद चंदोला। फुटबॉल, क्रिकेट, बैडमिंटन, टेबल टेनिस व हाॅकी में असाधारण प्रतिभा के दम पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ‘यूनिवर्सिटी ब्ल्यू ’ हासिल करने वाले आनंद चंदोला ने प्रयाग से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार 'नॉर्दर्न इंडिया पत्रिका ' में वर्ष 1978 में खेल पत्रकार के रूप में कॅरियर शुरू किया व अंत तक पत्रिका समूह से ही जुड़े रहे। सरलता और सहजता ने उन्हें शहर ने आत्मीय संबोधन दिया ‘चचा ’ का। उन्होंने काशी पत्रकार संघ से संचालित वाराणसी प्रेस क्लब के बैनर तले मूर्धन्य पत्रकारों के नाम से संघ की वार्षिक खेल प्रतियोगिताओं की श्रृंखला शुरू करायी।
बनारसी फक्कड़पन की जीती-जागती मिसाल थे आनंद चंदोला। सभी उनको ‘चचा ’ इसलिए कहते थे कि उनसे मिलते ही अपनत्व का एक सहसा बोध होता था। उनके चेहरे पर भोलापन और आंखों में किसी अपने की तलाश हमेशा नज़र आती थी। खेल तो उनकी नसों में दौड़ता था। जीवन मूल्यों के प्रति वे बहुत संजीदा थे, साथ ही परिचितों के सच्चे शुभचिंतक भी थे। जिस पत्रकार में खेल के प्रति लगाव महसूस करते थे तो उस पर अपना वात्सल्य भाव उड़ेल दिया करते थे। खेल को वे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते थे।
चंदोला जी का मिजाज कबीर की तरह का था। वे नवागत पत्रकारों के अभिभावक स्वरुप थे। खेल और खानपान के शौक़ीन तो थे ही, साथ में पत्रकारों की खान-पान के व्यवस्थापक भी थे। जीवन में कभी उनके मुख पर चिंता की लकीरें देखी नहीं गयीं। चंदोला जी जहा खड़े हो जाते थे, वही पर इनके चाहने वालो की भीड़ इनके इर्द गिर्द एकत्र हो जाती थी। यह उनकी लोकप्रियता का परिचायक था।
जन्म: 09 अप्रैल, 1937
गोलोकवास: 20 मई, 2012
मनोहर खाडिलकर
हिंदी, अंग्रेजी और मराठी भाषाओं का उत्कृष्ट ज्ञान रखने वाले मनोहर खाडिलकर योग्य पत्रकार ‘आज ’ के संपादक रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर के सुयोग्य पुत्र थे। 1954 में हाईस्कूल उत्तीर्ण करने के बाद ही वे पत्रकारिता क्षेत्र में सक्रिय हो गये। 1956 से वे ‘आज ’ से संबद्ध हो गए। 1957 से 1999 तक मनोहर जी ने नार्दर्न इंडिया पत्रिका में काम किया। इसके पूर्व 1953 से 1962 तक पुणे से प्रकाशित मराठी अखबार में ‘उत्तर प्रदेश की चिट्ठी ’ का लेखन किया। आकाशवाणी पर क्रिकेट, हाॅकी और फुटबॉल की रनिंग कमेंटरी भी की। वे भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के संघठन सचिव और काशी पत्रकार संघ के अध्यक्ष भी रहे। हिंदी और मराठी रंगमंच से भी उनका निकट संबंध था।
मनोहर जी ग्वालियर से बनारस आये और यहां शिक्षार्जन किया। एक तो पिता जी से विरासत में पत्रकारिता के गुण सूत्र मिले थे, ऊपर से कुशाग्रबुद्धि के थे, इसलिए अपनी पहचान बनाते चले गये। ‘आज ’ दैनिक से 1957 में खेल संवाददाता के रूप में आपने पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण किया। बाद में इलाहाबाद से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार ‘लीडर ’ से जुड़ने के बाद इनका क्षेत्र और व्यापक हुआ। बाद में ‘भारत ’ और ‘लीडर ’ के बनारस कार्यालय के ब्यूरो चीफ हुए। तदंतर अंतिम चरण में मनोहर जी इलाहाबाद से प्रकाशित ‘नार्दर्न इंडिया पत्रिका ’ के ब्यूरो प्रमुख बनाए गए और यहीं से अवकाश ग्रहण किया। काशी पत्रकार संघ को आगे बढ़ाने में आपका यथोचित योगदान रहा। आर्थिक पावना को लेकर अखबार प्रबंधन से इन्होंने कभी समझौता नहीं किया। आपके केवल पत्रकारों से ही नहीं, बल्कि अन्य संगठनों, ट्रेड यूनियनों सहित राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र के विशिष्टजनों से मधुर संबंध थे।
जन्म: 14 दिसंबर, 1937
गोलोकवास: 30 मई, 2013
जगत नारायण शर्मा
जगत नारायण शर्मा प्रतिभाशाली चित्रकार तथा कार्टूनिस्ट थे। ललित कला में स्नातक जगत शर्मा में जीवंत पोट्रेट बनाने की विलक्षण प्रतिभा थी। राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित उनकी कलाकृतियों को काफी प्रशंसा मिली। प्रख्यात कार्टूनिस्ट मनोरंजन कांजिलाल के शिष्य जगत जी दो बार राज्य कला अकादमी के सदस्य रहे। राष्ट्रीय ललित कला अकादमी से भी वे जुड़े रहे। मनोरंजन कांजिलाल के ‘आज ’ की सेवा से पृथक होने पर उनकी जगह पर जगत जी आये। कार्टून बनाने में गुरु-शिष्य आमने-सामने होते थे, फिर भी कांजिलाल अपने शिष्य की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। जगत जी ने काशी पत्रकार संघ के मंत्री का दायित्व भी संभाला।
बिहार के दानापुर में जन्मे जगत जी को पिता जी की नौकरी के चलते बनारस आना हुआ। आपके पिता भगवान दास मुगलसराय रेलवे विभाग में कार्यरत थे । जब इनका चित्रकार के रूप में पदार्पण हुआ, तब व्यंग्य चित्रकार मनोरंजन कांजिलाल का बोलबाला था। कांजिलाल को गुरु मान कर आपने कला साधना की और कार्टूनिस्ट के रूप में यश अर्जित किया। कार्टून विधा को जीवंत बनाने की दिशा में जगत शर्मा के प्रयास सराहनीय हैं।
जगत नारायण शर्मा की चित्रकारी की दुकान पराड़कर स्मृति भवन की नीचे थी। जब कोई पराड़कर स्मृति भवन में आता तो जगत जी से ही मिलकर भवन की सीढ़ियों पर चढ़ता। वह दिनभर अपनी दुकान में या पराड़कर स्मृति भवन के ऊपरी तल पर स्थापित कार्यालय के अतिरिक्त अन्य जगह पर मिलते। कभी भी जब कोई कार्यक्रम या समारोह पर सलाह लेनी होती तो जगत जी की मंत्रणा के बिना संभव नहीं हो पाता। वे हमेशा हंसते और मजाक करते रहते । जगत जी को बाद में कविता का भी शौक लगा और और वे जापानी विधा की कविता "हाइकू" की रचना करने लगे। वह इसे संघ के समारोहों में बड़े मनोभाव से सुनाते भी थे। अंतिम समय तक उनका पराड़कर स्मृति भवन आना-जाना बना रहा।
जन्म: 04 जून, 1940
गोलोकवास: 01 जुलाई, 2019
सुशील त्रिपाठी
वाराणसी के भलेहटा (अब चन्दौली) में जन्मे सुशील त्रिपाठी ने ‘आज ’ अखबार से पत्रकारिता शुरू की। उनका अंतिम पड़ाव 'हिन्दुस्तान' अखबार रहा। 1974 से 1977 तक जेपी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानेवाले सुशील संवेदनशील चित्रकार और कवि भी थे। नवप्रवेशी पत्रकारों के लिए वह कभी गुरु वशिष्ठ, तो कभी द्रोणाचार्य होते थे। 'आज' अखबार में ‘नगर चर्चा ’ और ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की हलचल ’ जैसे स्तंभों को लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंचाने का श्रेय उन्हें जाता रहा।
सुशील जी घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे। एक जगह रहना इनको रास नहीं आता था। अक्सर चाय पीने के बहाने ये खबरों को सूंघा करते थे। पूरी काशी उन्हें अपनी लगती थी। वह यहा की संस्कृति में जीवन भर रचे-बसे रहे। उनमे गैरो को भी अपना बना लेने की अद्भुत छमता थी। चित्रकारी में नए प्रयोग करने के वे हिमायती थे।
सुशील जी 2008 में चकिया की पहाड़ियों की गुफाओं पर मौजूद बुद्ध के पदचिह्न तलाशने गए थे। चंदौली से चकिया के पास (कैमूर) विन्ध्य की पहाड़ी से गिरकर गंभीर रूप से घायल हो गए थे। बाद में उनका गोलोकवास हो गया। जीवन मूल्यों के प्रति उनकी गहरी आस्था थी। गवेषणात्मक पत्रकारिता के सुशील पक्षधर थे। सुशील त्रिपाठी की पत्रकारिता में उनके कलाकार मन का बड़ा योगदान था।
जन्म: 18 जुलाई, 1956
गोलोकवास: 04 अक्टूबर, 2008